The Chains of Comfort
एक दौर था जब अलार्म नहीं, मुर्गे की बाँग से नींद खुलती थी। जिम नहीं, खेत और गलियाँ ही कसरत हुआ करती थीं। डॉक्टर दूर थे, लेकिन बीमारी उनसे भी ज़्यादा दूर। आज हाल देखिए मोबाइल अलार्म बजता है, फिर भी नींद पूरी नहीं होती। लिफ्ट खराब हो जाए तो ऐसा लगता है जैसे सरकार ने हमसे मौलिक अधिकार छीन लिया हो। दो मंज़िल सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ जाएँ तो सीधा सीने में दर्द याद आने लगता है। पहले सुविधाएँ कम थीं, लेकिन शरीर स्वस्थ थे। आज सुविधाएँ अधिक हैं, लेकिन शरीर अस्वस्थ हैं। और इस अंतर का नाम है सुविधाओं की बेड़ियाँ। पहले भूख लगती थी, तो रूखी रोटी भी अमृत लगती थी। आज पिज़्ज़ा, बर्गर, थाली सब है, पर भूख “ऑफलाइन” हो चुकी है। पहले थकान आती थी, तो नींद गहरी होती थी। आज बिस्तर है, लेकिन नींद व्हाट्सएप पर व्यस्त है। पहले लोग पैदल चलते थे, आज पार्किंग तक भी गाड़ी ले जाते हैं। पहले बच्चे मिट्टी में खेलते थे, आज मोबाइल में “लेवल” बढ़ाते हैं। पहले बुज़ुर्ग कहानियाँ सुनाते थे, आज टीवी से सुनते हैं। हँसी आती है, पर सच सोचने पर डर भी लगता है। हमने सुविधा के नाम पर अपने शरीर से मेहनत छीन ली, अपने मन से शांति छीन ली, और रिश्तों से बातचीत छीन ली। विडंबना देखिए हम जिस तकनीक से समय बचा रहे हैं, उसी से जीवन छोटा कर रहे हैं। जिस आराम को हमने वरदान समझा, वही धीरे-धीरे बीमारी बन गया। आज की बीमारियाँ अचानक नहीं आईं। डायबिटीज़, बीपी, मोटापा, डिप्रेशन ये रोग नहीं, हमारी रोज़मर्रा की आदतों की चुपचाप दी गई चेतावनियाँ हैं। बच्चा मोबाइल से हँस रहा है, युवा स्क्रीन पर उलझा है, बूढ़ा टीवी के सामने बैठा है, और परिवार एक ही कमरे में एक-दूसरे से अनजान हो गया है। असल समस्या सुविधा नहीं है। समस्या है सुविधा पर निर्भरता। जब सुविधा आदत बन जाती है, तो वही सुविधा बेड़ी बन जाती है। अब सवाल यह नहीं कि सुविधाएँ छोड़ें या नहीं, सवाल यह है कि क्या हम अब भी अपने शरीर और मन के मालिक हैं या पूरी तरह “रिमोट कंट्रोल” पर चल रहे हैं? थोड़ा पैदल चलना, थोड़ा सादा खाना, थोड़ा मोबाइल से दूर रहना, और थोड़ा अपने लोगों के पास बैठना यही आज की सबसे बड़ी लग्ज़री है। क्योंकि याद रखिए सुविधाएँ जीवन को आसान बनाने के लिए होती हैं, लेकिन जब वही जीवन को जकड़ लें, तो वे सुविधा नहीं रहतीं वे बन जाती हैं “सुविधाओं की बेड़ियाँ।”

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